1 जुलाई से शुरू हो रही है जगन्नाथ रथयात्रा, जानें महत्व

हिंदू धर्म में चार धाम यात्रा का विशेष महत्व बताया गया है। इन्हीं धामों मे से एक है उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर, जो भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। भगवान जगन्नाथ को कृष्ण जी का ही अवतार माना जाता है। इस धाम से हर साल रथयात्रा निकाली जाती है, जिसे जगन्नाथ रथयात्रा के नाम से जाना जाता है।
इस साल इस यात्रा की शुरुआत 1 जुलाई से होगी और इसमें लाखों लोग हिस्सा लेने के लिए पहुंचेंगे। धार्मिक मान्यता के अनुसार विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा की परंपरा राजा इंद्रद्युम्न के शासनकाल से चली आ रही है। गौरतलब है कि बीते दो साल कोरोना के चलते भक्तगण इस पावन यात्रा में नहीं शामिल हो पाए थे, लेकिन इस साल पूरे धूम-धाम के साथ रथ यात्रा का महोत्सव मनाया जाएगा।
भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में से एक श्रीजगन्नाथ पुरी धाम को पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र आदि के नाम से और यहां पर निकलने वाली रथयात्रा को गुण्डीचा यात्रा, घोषयात्रा, दशावतार यात्रा आदि के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा में शामिल होने को बहुत बड़ा सौभाग्य माना गया है।
धार्मिक यात्रा का महत्व अधिक होने के कारण देश ही नहीं विदेश से भी लोग इसका हिस्सा बनने के लिए आते हैं। लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़े रथयात्रा के बारे में मान्यता है कि इसमें शामिल होने मात्र से उन्हें सभी तीर्थों के पुण्य फल मिल जाते हैं। हर साल की तरह इस बार भी जगन्नाथ रथ यात्रा का महापर्व आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को आयोजित किया जाएगा।
ऐसा भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस रथ यात्रा में शामिल होकर भगवान के रथ को खींचते हैं, उसे 100 यज्ञ करने के फल मिलता है। साथ ही इस यात्रा में शामिल होने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है। पुराणों के अनुसार, आषाढ़ मास से पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन करने जितना पुण्य मिलता है।
इस रथ यात्रा में तीन पवित्र रथों को तैयार किया जाता है, जिनमें से एक भगवान कृष्ण और दो उनके भाई बलराम/बलभद्र व बहन सुभद्रा को समर्पित होते हैं। इन रथों के रंग भी अलग रखे जाते हैं। श्री कृष्ण जी के रथ को गरुड़ध्वज या नंदिघोष कहा जाता है और इसका रंग सदा पीला या लाल रखा जाता है। बलराम जी के रथ को तालध्वज के नाम से जाना जाता है और इसका रंग लाल और हरा होता है। वहीं सुभद्रा जी के रथ का नाम देवदलन रथ और इसका रंग काला या नीला रखा जाता है। इन तीनों रथों में सबसे आगे बलभद्र जी का और उसके बाद सुभद्रा जी का और सबसे आखिर में भगवान श्री जगन्नाथ का रथ चलता है।
पुराने समय से ये मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा के जरिए अपनी मौसी के मंदिर जाते हैं। रथयात्रा को गुंडीचा मंदिर तक ले जाया जाता है। गुंडीचा मंदिर जगन्नाथ मंदिर से करीब तीन किलोमीटर दूर है। भक्त पूरी श्रद्धा के साथ भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचकर उन्हें गुंडीचा पहुंचाते हैं। कहते हैं कि तीनों देव और देवी यहां आकर आराम करते हैं। यहां आकर श्रद्धालु भी भगवान श्री कृष्ण की आराधना में लीन हो जाते हैं। भगवान जगन्नाथ की यात्रा आषाढ़ माह की द्वितीय तिथि को शुरू होती है और शुक्ल पक्ष के 11वें दिन वे अपने द्वार लौट आते हैं।
यात्रा के शुरू होने पर गजपति राजा यहां आते हैं और रथयात्रा की शुरुआत करते हैं। वे सोने की झाड़ू से भगवान के जाने तक का रास्ता साफ करते हैं। यात्रा के समाप्त होने के बाद भी कुछ दिनों तक भगवान की प्रतिमाएं रथों में ही स्थापित रहती हैं। भगवान श्री कृष्ण, बलराम जी और देवी सुभद्रा जी के लिए मंदिर के द्वार एकादशी पर खोले जाते हैं। प्रतिमाओं को यहां लाने के बाद स्नान कराया जाता है और विधि के तहत पूजा-पाठ किया जाता है।
जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा भले ही एक दिन की होती हो, लेकिन इस महापर्व की शुरुआत वैशाख मास की अक्षय तृतीया से प्रारंभ होकर होकर आषाढ़ मास की त्रयोदशी तक चलता है। रथ यात्रा के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले रथों का निर्माण तो कई महीने पहले से शुरू हो जाता है। गौरतलब है कि प्रत्येक साल रथ यात्रा के लिए नए रथों का निर्माण होता है और पुराने रथों को तोड़ दिया जाता है।